Thursday 8 October 2015

// और मैं ऐसी किसी भी विंध्वंसक "एकता" पर शर्मसार हूँ ....//


बचपन से सुनी थी - आपने भी सुनी होगी - किसी न किसी रूप में सब ने सुनी होगी .... वो "एकता" की सदाबहार सराहनीय कहानी - कुछ यूं कि ..........एक समझदार वृद्ध ने पतली संटियों को तोड़ने को कहा - और संटियां आसानी से तोड़ दी गईं - और फिर वृद्ध ने सभी संटियों को गट्ठ करवा दिया और कहा तोड़ो - और कोई नहीं तोड़ पाया ....

बस इस तरह समझा दिया गया कि "एकता" भी क्या चीज़ है - एक हो जाओगे तो मज़बूत हो जाओगे कोई तोड़ नहीं सकेगा .... और मैंने इसे स्वाभाविक रूप से एक प्रेरणा और सीख देने वाली मासूम सी कहानी के रूप में आत्मसात कर लिया था और इसे सराहता भी रहा था ....

पर आज "दादरी हत्याकांड" ने झकझोड़ दिया है .... मैं सोच रहा हूँ .... ये संटियां मिल कर लट्ठ भी तो बन जाती हैं .... लट्ठ जिसमें ना दिल होता है ना दिमाग .... वो तो बस लट्ठ होता है .... "एकता" का ही एक घिनौना और टुच्चा रूप - विंध्वंसक लट्ठ !!!!

और मैं सोच रहा हूँ कि ये "एकता" हमेशा ही अच्छी चीज़ हो ये भी कहाँ ज़रूरी है ?? - "एकता" धर्म या जाति या परिवार और या ही राष्ट्र के लिए भी क्यूँ ना हो - पर सदैव सही हो - कहाँ जरूरी है ??

और मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि - ये संटियों सींखचियों से निर्मित लट्ठ रुपी "एकता" जब किसी निर्दोष का सर फोड़ दे उसकी जान ले ले तो यही "एकता" बहुत टुच्ची हो जाती है .... विंध्वंसक हो जाती है ....

और मैं ऐसी किसी भी विंध्वंसक "एकता" पर शर्मसार हूँ .... और शायद पूरा देश ही शर्मसार है  ....

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