Wednesday 19 August 2015

//// "डावर साहब" बहुत बड़े फेंकू हैं .... आज भी पैसे फेंक के देते हैं ....////


इफ़्तेख़ार यानि "डावर साहब" और अमिताभ बच्चन यानि "विजय" के बीच का संवाद ....
" डावर साहब ........ मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता " ....

दीवार का ये डायलॉग बेहद लोकप्रिय हुआ था .... क्यों ??
क्या डायलाग बहुत लंबा चौड़ा या विशेष शब्दों से युक्त था ? या किसी भी मायने में नायाब ??
नहीं !!
तो फिर इतना लोकप्रिय क्यों हुआ ?? 

मुझे लगता है कि गुलाम भारत के समय अंग्रेज़ों द्वारा भारतियों के उपहास और शोषण की पीड़ा के कारण भारत के आमजन के DNA में ये "खनक" है कि हक़ के पैसे कोई उल्टे एहसान जता के या उपहास करके या अपमानित करके क्यों दे ??

अब देखना होगा की बिहार का DNA भारत के DNA से मैच खाता है अथवा नहीं ??

वैसे मैचिंग की बात हो रही तो बता दूँ कि अपने मोदी जी का सूट बूट वाले "डावर साहब" से तो परफेक्ट मैचिंग होता ही है .... पर क्या नितीश कुमार "विजय" के किरदार के मैचिंग बन पाएंगे ?? .... और मेरा जवाब है - शायद नहीं !! .... नहीं इसलिए कि आज के लोकतंत्र में "डावर साहब" की हैसियत तो बढ़ी है पर "विजय" बहुत मजबूर हो चला है ....

मजबूर इसलिए कि फिल्म दीवार में तो "डावर साहब" ने जो पैसे फेंके थे वो उसके खुद के थे और वो पैसे उसने "विजय" को अपने ठिकाने बुलवाकर उसके सामने फेंके थे - जिसे "विजय" डायलॉग सहित ठुकरा सकने में सक्षम था ....

पर आज असलियत में "डावर साहब" ने जो पैसे फेंके है वो उसके खुद के नहीं उसके बाप के भी नहीं - और जो पैसे फेंके हैं वो खुद के ठिकाने पर भी नहीं - बल्कि फेंके हैं "विजय" के घर में घुस्सू जैसे घुस के - "विजय" की अनुपस्थिति में - और फेंक के खुद ही भाग भी लिए हैं ....

और जिस अंदाज़ में फेंके हैं एक बार फिर तय हो गया है कि "डावर साहब" बहुत बड़े फेंकू हैं - आज भी पैसे फेंक के देते हैं !!!! छिः !!!!

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